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कहानी - गुजरना एक हादसे से...

बुन्देलखंड का एक छोटा सा पिछड़ा हुआ गाँव.... . कस्बे की मुख्य सड़क से तकरीबन 3 किमी दूर. गाँव का एक घर. जब हम घर में पहुँचे तो घर में केवल दो बहुएँ, दो बेटियाँ और ढेर सारे बच्चे थे. यह हमारे पथ प्रदर्शक के रिश्तेदार का घर था. आँगन में पहुँचते ही लम्बा घूँघट काढ़े दोनों बहुएँ आयीं और मेरे मना करने के बावजूद पूरा दबा-दबाकर पांव छुए. फिर कहा ”दीदी हमने आपको पहचाना नहीं....“ हमने अपने पथप्रदर्शक का परिचय बताया. इसके बाद शुरू हुआ उनसे संवाद का सिलसिला. बड़ी बहू के तीन बेटियाँ थीं. छोटी बहू के दो बेटियाँ एक बेटा था. बड़ी बहू की उम्र लगभग 24 साल और छोटी की 19-20 साल थीं. दोनों के पति मजदूरी करने बाहर गये थे. एक मुम्बई और दूसरा भी रोजगार की तलाश किसी शहर की ओर. बड़ी बहू जिसके तीन बेटियाँ थीं, उसने कहा- ”दीदी हमारे घर भगवान ने मोढ़ियाँ ही मोढ़ियाँ भर दी हैं.“ मैंने उससे पूछा कि तुम्हारे तीन बेटियाँ हैं तो तुम तो अभी बेटे का इन्तजार करोगी. उसने कहा ‘दीदी मैं तो ऑपरेशन कराना चाहती हूँ. पर घर के लोग और समाज के लोग नहीं कराने दे रहे हैं.’ मैंने कहा कि अगर चौथी भी मोढ़ी हो गयी तो क्या पाँचवीं का इन्तजार करोगी. वह बोली दीदी देखो क्या होता है. दोनों बहुओं की गोद में सात-आठ महीने की बेटियाँ थीं. एक-एक, दो-दो साल के अन्तर पर दोनों के तीन तीन बच्चे थे. थोड़ी देर में उन दोनों से अपनापन सा हो गया. अभी उन दोनों से बातचीत कर ही रही थी कि उनकी सास शौच से वापस आ गयी. परिचय के बाद वह बहुत अच्छे से मिलीं फिर बातचीत की कमान उनके हाथ में आ गयी. बातचीत शुरू करते ही उसने हमसे भगवान की शिकायत की. ”भगवान ने न जाने क्यों सारी लड़कियाँ हमारे घर ही भर दीं. “ बहुएँ रोटी के इन्तजाम में लग गयीं. सास ने कहा चलो उधर के आँगन में चलते हैं. मैं उनके साथ दूसरी तरफ के आँगन में चली गयी. वहाँ खटिया बिछायी गयी. सास अपने मायके की रईसी का बखान करने लगीं . बीच-बीच में वह अपनी बहुओं की बेटियों का जिक्र करके दुखी हो जाती. घर के एकमात्र बेटे(छोटी बहू का बेटा) को वह हर समय आँख के सामने रखती. बेटा भी लाड़ला था. अम्मा का दुलारा, सिर-चढ़ा. अम्मा हमारे लिए काली बहू मत ढूँढियो. काली बहू से हमें ओकी (उल्टी) आउत है. मैं तीन साल के उस बच्चे के भीतर निर्मित होते पुरुष को देखकर दंग थीं. अम्मा ने उसे हँसकर गले से लगा लिया. बेटियों के पास आने पर वह उन्हें दुत्कार देती. बाद में वह मेरा खयाल करके उन्हें पास बुला लेती थी. मैं घर के ताने-बाने को समझने का प्रयास कर रही थी. घर सारी माँओं के भीतर लड़कियों को लेकर एक हताशा और दुख को मैं महसूस कर रही थी. दो दिन पूर्व बीबीसी में सुने समाचार की याद आने लगीं कि पंजाब में उच्च वर्ग के घरों में सर्वेक्षण से पता चला है कि वहा 10 लड़कों पर मात्र 3 लड़कियाँ हैं. राष्ट्रीय आँकड़ा भी लगातार कम होती लड़कियों के प्रति चिन्तित है. और यहाँ लड़कियों की बहुतायत का दुख क्षोभ दिखायी दे रहा था. बातों-बातों में सास ने मुझे बताया कि आजकल की बहुओं में सब्र नहीं है. जमाना इतना आगे बढ़ गया है और ये हैं कि हर साल बच्चे पैदा कर रही हैं. देखो, छोटी बहू फिर से माँ बनने वाली है. 20 साल की लड़की जिसके एक एक साल के अन्तर पर तीन बच्चे हैं. छोटी बेटी सिर्फ आठ महीने की है. वह फिर से माँ बनने वाली है. सास ने मुझे बताया कि लड़के से मंगाकर उसने बच्चा गिराने के लिए उसने 500 रुपये की गोली खा ली है. (उनका जोर पैसे पर ज्यादा था.) फिर भी गर्भ नहीं गिरा. चार महीने का हो गया है. पिछले दो महीने से खून आ रहा है. पता नहीं पेट में क्या है. मैंने पूछा डाक्टर को नही दिखाया. वह बोली-अब मैं कहाँ तक दिखाऊँ मैंने मायके वालों को फोन कर दिया है- आकर लिवा ले जायें. इलाज-विलाज करायें. हमारे इतना नहीं कि यह हर साल मोढ़ियाँ ही मोढ़ियाँ जनती रहें और हम खिलाते रहें. अब मायके वालों का जो मन हो करें.“ तब तक घर का एकमात्र चिराग बोलने लगा- अम्मा नींद आ रही है. अम्मा ने प्यार से उसे पास में ही सुला लिया. पास से ही छोटी-छोटी लड़कियों के रोने की आवाज आ रही थी. अनकी माँएँ खाना बनाने में व्यस्त थीं.

सास की इस खबर से मैं बिल्कुल सन्न रह गयी थी कि छोटी बहू फिर से माँ बनने वाली है. मेरा मन अब किसी चीज में नहीं लग रहा था. माँ अपनी बहू की इस हालत के लिए उसे ही दोष दे रही थी. बहुओं की बनायी रोटी और साग खाकर मैं बिस्तर पर लेट गयी. नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी. मैं लगातार सोचे जा रही थी 20 और 24 साल की उन बेटियों के बारे में जो स्वयं तीन तीन बच्चों की माँ थीं और 20 साल की उम्र में वह लड़की चौथे बच्चे की माँ बनने जा रही थी. आखिर क्या गलती है उनकी? मैं अपने ‘ज्ञान’ बल पर यही ‘फार्मुलेट’ कर पायी कि वह इस सामन्ती समाज की शिकार हैं. धीरे-धीरे मैं नींद के आगोश में चली गयी.

सुबह जब सास अपने कामों में लग गयी तो मैं एक बार फिर रोटी बनाती हुई बहुओं के पास आ बैठी. ढेर सारी बातें करते हुए छोटी बहू ने खुद अपनी हालत के बारे में मुझे बताया. दीदी मुझे लगता है कि कुछ गड़बड़ है- दो महीनों से खून आ रहा है. मैंने कहा कि तुमने डॉक्‍टर को क्यों नहीं दिखाया. उसने बताया कि उसने कस्बे में जाकर नर्स को दिखाया था. पर उसने सफाई करने से मना कर दिया. दीदी दो महीने से लगातार खून आ रहा है घर में मेरी कोई सुनता ही नहीं . पति अलग छोड़कर चला गया. तभी बड़ी बहू उबल पड़ी- दीदी इस घर में सभी कसाई हैं कसाई, बल्कि कसाई से भी बदतर. फिर तो दोनों बहुओं का क्षोभ उबल पड़ा. छोटी बोली- किसी तरह से यह आफत खत्म हो तो...... मैं यह बच्चा बिल्कुल नहीं चाहती. मुझे तो लगता है कि जो है वह भी मर खपा जाएं तो अच्छा है. 20 साल की वह लड़की ‘मातृत्व’ से अघा चुकी थी. इसके बाद वह अपने पति को कोसने लगीं जो उसे इस हाल में छोड़कर चला गया था. अचानक वह मुझसे पूछने लगीं कि दीदी यह बच्चा गिर तो जाएगा न? मैं इस सब विषय में बिल्कुल अनभिज्ञ थी. मेरा किताबी ज्ञान इस विषय में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था. मैं सरकारी की तरह उसे सलाह देने लगीं - देखो तुम्हारे दो लड़की एक लड़का पहले ही था तब तुमने इस बच्चे का खतरा क्यों उठाया. इस पर बड़ी बहू ने जवाब दिया- दीदी यहाँ हमारी कहाँ चलती है. हम बाजार तो जाते नहीं. यह सब तो पतियों को सोचना चाहिए. उनके सामने हमारा बस कहाँ चलता है. यह मान लो ये सारे बच्चे जोर जबरदस्ती के ही हैं. और फिर यहाँ गाँव में सब कहते हैं कि लड़के जोड़ी के ही अच्छे होते हैं. अब दोनों ही बहुएं आक्रोशित थीं. दीदी सब गलती हमारे आदमियों की है. जब वही ध्यान नहीं देते तो घर में और कौन देगा. छोटी बहू बोली- अब यह हालत हो गयी है तो मुझे मायके भेज रहे हैं. मैं तो वहाँ जाकर भी नहीं दिखाऊँगी. वह पैसा क्यों खर्च करें? भलें ही मर जाऊँ लेकिन डॉक्‍टर को नहीं दिखाउँगी. मेरे पास उनके हालात का, उनके गुस्से का, उनके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था. मेरा सारा किताबी ज्ञान फेल हो चुका था. दोपहर में काम से फुर्सत पाकर बहुएँ फिर मेरे पास आकर बैठ गयीं और फिर वही चर्चाएँ. थोड़ी देर में मैं चलने की तैयारी करने लगीं. दोनों बहुएँ मुझसे इसरार करने लगीं दीदी आज मत जाओ रुक जाओ. आपसे मिलकर थोड़ा सा चैन मिल रहा है. छोटी बहू ज्यादा इसरार कर रही थी. लेकिन मुझे तो निकलना था.- अच्छा दीदी चाय पी लो तब चली जाना. बहू चाय बनाने चली गयी. जाने की तैयारी करके मैं बाहर खटिया पर बैठकर चाय पी रही थी तभी सास मेरे पास आयी, बोली- दीदी यहाँ तो आना देखो तो छोटी बहू को क्या हो गया है. मैं भीतर चली आयी. बहू पनारे पर उकडूँ बैठी थी. ‘दीदी को दिखा’ उसने अपना पेटीकोट उठाया. उसके पैर के बीच में योनि के बीच में एक माँस का लोथड़ा-सा लटक रहा था. मैं देखकर घबरा गयी. फिर साहस बटोरकर मैंने सास से कहा- पहले इसे यहाँ से उठाओ और गाँव की कुछ बड़ी-बूढ़ी औरतों को बुलाने चली गयी. मैं छोटी बहू को उठाकर कमरे में लेकर आयी. उसे खटिया पर लिटा दिया. तब तक गाँव की औरतें इकट्ठी होने लगीं . सब बारी-बारी से उसकी साड़ी उठाकर देखने लगीं . साथ ही शुरू हो गयी उन सबकी बातें....सब एक साथ बोलने लगीं . सास बोली- सब इसके कर्मों का फल है पहले तो यह पेट में आया क्यों.... आ गया तो गोली क्यों खायी.... अब भोगे..... औरतें गन्दी-गन्दी बातें करने लगीं . कोई कुछ तो कोई कुछ........ कुछ मजाक भी करने लगीं . उधर बहू दर्द और भय से छटपटा रही थी. मेरी कनपटी सनसनाने लगीं . साहस करके मैंने कहा- आप लोग कुछ कर सकती हैं तो ठीक है नहीं तो इसे डाक्टर के पास ले चलिये. डॉक्‍टर तो करीब 40 किमी दूर बाहर में मिलेगा. एक ने बताया. कस्बे में एक नर्स है. एक बूढ़ी महिला बोली- नहीं कहीं ले जाने की जरूरत नहीं हैं. झूठे ही दो चार सौ खर्च हो जायेंगे. इसे खटिया पर से उठाकर ईंट पर बिठाओ.’’ फिर ईंट आयी. बहू को उठाकर ईंटों पर उकडूँ बिठा दिया गया. अब एक दो औरतों ने आगे बढ़कर हाथों से उसके शरीर से लटकते भ्रूण को निकालने का प्रयास किया. एक उसके पेट को मसलने लगीं . बाकी औरतें टिप्पणी कर रही थीं. कुछ चिन्तित भी थीं. मैं बीच-बीच में बोल रही थी- देखिये जबरदस्ती मत करिये इसे डाक्टर के पास ले चलिये. इसपर छोटी बहू जो अभी तक साहस किये भी उफन पड़ी- नहीं मैं डॉक्‍टर के पास नहीं जाऊँगी. मुझे ऐसे ही मर जाने दीजिये. लगभग दो घंटे की मशक्कत के बाद उसके शरीर से वह अधफंसा भ्रूण बाहर निकलकर गिर पड़ा. सभी औरतें उस भ्रूण पर टूट पड़ीं. और उसका सचित्र वर्णन करने लगीं . अरे देखो छोटे-छोटे हाथ पैर हैं......नाखून भी हैं.......अरे आँखें भी बन गयी हैं........मैं बिल्कुल स्तब्ध थी. ....... एक ने तो लकड़ी से उस भू्रण को उल्टा-पल्टा- अरे! यह तो मोढ़ी है....... अभी अगली ने कहा........मोढ़ी है तभी तो चिपकी पड़ी थी माँ की कोख से........गिर नहीं रही थी.... मैं बिल्कुल सन्नाटे में थी.... यही है मातृत्व....? इसी का गुणगान करते हैं सब? ....

अब मुसीबत थी नाल की जो अभी भी बहू की नाभि से जुड़ी थी. मैं लगातार कह रही थी कि इसके नर्स के पास ही ले चलिये. ऐसे तो इसकी हालत खराब हो जाएगी. अन्त में सास ने दाई को बुलाया. लगभग एक घंटे में दाई आयी. तब तक औरतों का प्रलाप जारी रहा. मैंने अपने आपको इतना विवश कभी नहीं पाया था. दाई को देखते ही बहू तेज-तेज से रोने लगीं . औरतें उसे ढाढस बंधाने लगीं . दाई ने बहू को पुनः बिस्तर पर लिटाया और अपनी गन्दी उंगलियाँ बिना धोये ही उसके शरीर में घुसेड़ दीं. इसी सब में नाल टूट गयी. अन्ततः दाई ने हार मान ली और कहा -कन्हारी टूट गई है. ऊपर चली गई है. इसे तुरन्त नर्स के पास ले जाओ. बहू का रोना और बढ़ गया. वह डाक्टर के पास जाने को तैयार नहीं थी. वह जोर जोर से रोने लगीं . उसने मेरा हाथ पकड़ लिया दीदी आप भी चलो मेरे साथ. अन्ततः गाँव में ही दो मोटर साइकिल का इन्तजाम किया गया. इसी बीच बहू के खून बहने की रफ्तार बढ़ गयी. मोटर साकिल पर बहू को लेकर मैं बैठ गयी. दूसरी पर उसकी सास और एक रिश्तेदार बैठ गयीं.बहू रास्ते भर रोती रही- दीदी मेरा साथ मत छोड़ना. मैं उसे ढाढस बंधाती रही. भीतर ही भीतर एक बोझ सा मेरे हावी होता गया. मेरे पास सिवाय शब्दों कुछ भी न था. लगभग 16-17 किमी की ऊबड़-खाबड़ यात्रा करके हम एक कस्बे में एक पक्के मकान के सामने पहुँचे. मैं तलाशने लगीं कि शायद यहीं कहीं डाक्टर होगी. अन्दर जाने पर बरामदे में एक गन्दा सा तखत एक किनारे पड़ा था. किनारे एक ग्लूकोज चढ़ाने का स्टैंड, एक मेज और मेज पर बेतरतीबी से पड़ी रूई, दवाइयाँ और गन्दगी बिखरी पड़ी थी. अन्दर एक कमरे में एक चारपाई पर चालीस पचास साल की एक महिला चारपाई पर लेटी थी और अपने मोबाइल पर कुछ खटरपटर कर रही थी. पास ही एक महिला ‘हेल्पर’ खड़ी थी. हमारे वहाँ पहुँचने पर उसने आँख उठाकर देखा और वैसे ही मोबाईल से खेलते हुए बेरुखी से पूछा- क्या है? सास ने पुनः बहू को दोष देते हूए विस्तार से बताना शुरू किया. .... वो बहू ने गोली खा ली..... खैर वह उठी और बहू को तखत पर लिटा दिया और फिर से शुरू हुआ ‘चेकअप’. बिना दस्ताना पहने उसने अपनी उंगलियाँ बहू के शरीर में घुसेड़ दीं ..... बहू के खून इतनी तेज बह रहा था कि तखत खून से तर हो गया. उस नर्स के कपड़े खून से तर हो गये. थोड़ी देर जाँच करने के बाद उसने जवाब दे दिया. इसे शहर ले जाओ जल्दी. उसकी फीस अदा करके हम बाहर आये. उसे शहर कैसे ले जाया जाये, इसी में एक घंटा बीत गया. उधर बहू के बेहोशी छाने लगीं . अन्ततः तय हुआ कि उसे मोटरसाइकिल पर ही शहर ले जाया जाये और दूसरी मोटरसाइकिल पर गाँव जाकर पैसे का इन्तजाम किया जाए. बहू और गाँव की वह औरत मोटर साईकिल पर शहर चले गये. मैं और उसकी सास वापस गाँव लौट आये. बहू यह कहते कहते अशक्त हो गयी-दीदी मेरा साथ मत छोड़ना ....... गाँव वापस पहुँचते पहुँचते रात हो गयी. दो घंटे बाद शहर से फोन आया कि बहू को भर्ती कर दिया है. खून की कमी हो गयी है. खून चढ़ाना पड़ेगा. बहू वहाँ अस्पताल में बेहोश थी. इधर सास अपने पक्ष में ‘ओपीनियन बिल्ड’ कर रही थी. बहू के साथ-साथ मेरी भी सारी ताकत निचुड़ चुकी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिएक्ट कँरूं. सुबह होने पर फोन आया कि बहू के होश आ गया है. सास ने पैसे वगैरह इकट्ठे किये और पति के साथ शहर चली गयी.

मैं भी खयालों में डूबते-उतराने बस में बैठ गयी. सोचती रही यह संसार दो चीजों से चलता है- उत्पादन और पुनरुत्पादन... दोनों पर औरतों को कोई अधिकार नहीं पुनरुत्पादन पर औरतों के कब्जे के लिए उत्पादन पर सर्वहारा के, कब्जा होने तक इन्तजार करना है. तब तक न जाने कितनी औरतों को कितना खून बह जाएगा और यह ‘शहादत’ किसी काम की नहीं...

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